धर्मो रक्षति रक्षितः
छत्रपति शिवाजी महाराज
दासता की जंजीरों को तोड़नेवाले, मुगलों और दख्खन के राजाओं को चुनौती देनेवाले सोलहवीं शती के महान राजा थे - छत्रपति शिवाजी महाराज।
उस समय का वातावरण कैसा था, यह देखना आवश्यक है। पूरे उत्तर भारत में मुगलों का शासन था। औरंगजेब जैसा राजा दिल्ली के तख्त पर था। दक्षिण में निजामशाही थी। हिन्दू धर्म खतरे में था। छोटे-बड़े हिन्दू राजा, सेनापति जो अपना पराक्रम, शौर्य मुगलों के लिए खर्च करते थे। ऐसे समय पर 15 वर्षीय बालक शिवाजी सामान्य परिवारों के अपने मित्रों के साथ हिंदवी स्वराज्य की स्थापना का शपथ लेते हैं। न उनके पास धन है, न उनके पास प्रशिक्षित सैनिक, न हाथी न घोड़े। फिर भी उनके पास क्या था जिसके भरोसे उन्होंने हिंदवी स्वराज्य स्थापित करने का प्रण किया। बालक शिवाजी के पास था उनका साहस और उनकी माता जिजाबाई के संस्कार। उसी विचारों से शिवाजी महाराज ने सामान्य प्रजा में चेतना जगाई। लोग इस युवा राजा को देवता की तरह मानते थे। आज भी मानते हैं और सदा मानते रहेंगे ऐसा उनका कार्य था। जिस तरह वनवास काल में भगवान श्री राम ने सामान्य से लगने वाले वानर सेना को साथ लेकर लंका के रावण पर विजय प्राप्त की, उसी तरह गरीब-परिश्रमी लोगों के सहयोग से शिवाजी महाराज ने मुगलों की लंका ध्वस्त कर दी।
शिवाजी महाराज का जन्म १९ फरवरी १६३० में पुणे के पास शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। बचपन में उनकी माता जीजाबाई उन्हें रामायण, महाभारत, संतों तथा वीरों की कहानियां सुनाती थी। जीजामाता के उत्तम संस्कारों, दादोजी कोंडदेव के शस्त्र प्रशिक्षण और समर्थ रामदासजी के आध्यात्मिक ज्ञान से शिवाजी के चरित्र को गढ़ा था। उनके जन्म के समय हिन्दुस्तान पर सब तरह मुगलों का शासन था। दिल्ली पर शाहजहां, अहमदनगर पर निजामशाही, बीजापुर में आदिलशाह और गोवलकोंढा में कुतूबशाही का राज था। शिवाजी महाराज के पिता शहाजी राजे बीजापुर दरबार में सेनापति थे। पिताजी के कारण शिवाजी को पुणे की जागीर मिली। लेकिन उन्हें गुलामी मंजूर नहीं थी। उन्होंने पुणे के आस-पास के गाँवों के सामान्य नागरिक को छापामार युद्ध सिखाया और उनके सामने हिंदवी स्वराज का ध्येय रखा। और फिर उन्हीं की सहायता से उस ध्येय को पूरा किया।
छापामार युद्ध में बहुत कम सैनिकों की जान जाती थी। उन्हें अपने ही नहीं बल्कि शत्रुओं के सैनिकों के प्राणों की परवाह थी। इसलिए उन्होंने हजारों सैनिक आमने-सामने लड़े ऐसा युद्ध कभी नहीं किया। वे छापामार युद्ध से दुश्मनों को डराते और उन्हें भागने के लिए मजबूर करते, और इस तरह लड़ाई जीतते थे। वे एक भी युद्ध हारे नहीं। सैनिकों को व्यर्थ मरते वे देख नहीं सकते थे। इसलिए समय देखकर चतुराई से वे शत्रुओं से वार्ता करने जाते और अपनी कुशल नीति से दुश्मनों पर हावी होते। उदाहरण तो बहुत हैं, लेकिन कुछ प्रसंगों का यहां उल्लेख करना आवश्यक है। जैसे- अफजल खान को महाराज ने बड़ी चतुराई से मारा। उन्होंने शाहीस्ते खान की उँगलियाँ काटीं और उसे भागने के लिए मजबूर किया। आगरा में औरंगजेब के कारागार से कड़ी सुरक्षा के बावजूद बड़ी चतुराई से और बिना युद्ध किये शिवाजी महाराज बाहर निकल आए। यह संभव हुआ उनके उत्तम नियोजन से! लोगों को प्रेरित करना, उन्हें निर्भय बनाना और उन्हें स्वराज्य के कार्य में लगाना, आवश्यकता पड़ने पर अपने सैनिकों की रक्षा के लिए अपने प्राण की बाजी लगाना, योग्य समय योग्य स्थान पर योग्य व्यक्ति की नियुक्ति करना, यह शिवाजी महाराज की विशेषता थी।
शिवाजी महाराज की सेना में नवयुवकों के साथ ही 60 वर्ष के अनुभवी साथी भी थे। सामान्य परिवार के तानाजी मालुसरे, बाजी पसाळकर, बाजीप्रभू देशपांडे जैसे पराक्रमी योद्धा उल्लेखनीय हैं। शिवाजी महाराज के मात्र 300 सैनिक 5000 शत्रु दल पर टूट पड़े, और उस गोवळकोंडा लड़ाई में शिवाजी के मात्र 23 सैनिक शहीद हुए। छापामार युद्ध की यह विशेषता थी।
हिंदवी स्वराज्य स्थापना करते ही शासन भी उसी ढंग से चलाया। लोगों पर अत्याचार-दुराचार करने वाले गाँव के पाटिल के हाथ-पैर काटने का कठोर दंड जब शिवाजी महाराज ने दिया था तब महाराज की आयु मात्र 15 वर्ष थी। इस कठोर दंड के बाद मराठा राज में वह गलती फिर से किसी ने नहीं की। उन्होंने खेती में पानी पहुंचे इसके लिए नदियों पर बांध बनवाए, नागरिकों की सुविधा के लिए मार्ग बनवाए, ऐसे असंख्य योजनाओं को उन्होंने कार्यान्वित किया था। राज चलाने के लिए धन लगता था, इसके लिए उन्होंने दुश्मनों के अड्डे पर छापे मारे। लेकिन किसी भी महिला की छेड़छाड़ नहीं होने दिया, जबकि उनके सैनिकों द्वारा पकड़ कर लाई गई शत्रु दल की सुन्दर स्त्री का उन्होंने सम्मान किया और आदरपूर्वक उन्हें वापस उनके स्थान पर भेजने की व्यवस्था की। महाराज के इस शुद्ध आचरण के चलते महिलाएं आज भी शिवाजी महाराज का वंदन करते हैं।
शिवाजी महाराज शत्रु का सम्मान भी करते थे। अफजल खान का वध करने के बाद वहीं पर उसकी मजार बनाई गई और वहां के व्यवस्था के लिए अपने खजाने से खर्चा किया। इसी कारण दुश्मन के सैनिक भी शिवाजी का सम्मान करते थे। महाराष्ट्र के बाबा साहेब पुरंदरेजी का शिवाजी महाराज पर एक महानाट्य ‘जाणता राजा’ में औरंगजेब कहता है, “दुश्मन हो तो शिवा जैसा जो कहीं झुकता नहीं, रुकता नहीं और चाल-चलन एक राजहंस जैसा शुद्ध!”
शत्रु भी जिनकी प्रशंसा करें, ऐसा राजा होना दुर्लभ है। शिवाजी महाराज की प्रत्येक योजना अचूक होती थी। पीछे हटने से जीत मिलती है तो वे थोड़े समय के लिए अपने कदम पीछे भी लेते, और फिर शत्रु दल के संभलने से पहले उनपर आक्रमण कर देते। यह विशेष तरीका महाराज ने अपनाया था। छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने शासनकाल में कहीं भी कोई गलती नहीं की, इसी वजह से शिवाजी महाराज का अध्ययन करनेवाले दुनियाभर के विद्वान् उन्हें महान शासक मानते हैं और भारतीय जनमानस बड़ी श्रद्धा से उनका स्मरण करते हैं।
- प्राध्यापक चन्द्रकांत रागीट, नागपुर
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उत्सरति इति उत्सवः : उत्सव वही जो हमें उन्नत करें
सूर्य को समर्पित महापर्व ‘मकर संक्रांति’
मकर संक्रांति भगवान सूर्य को समर्पित भारतवर्ष का महान पर्व है। दुनियाभर में रहनेवाले लोगों के लिए सूर्य एक प्राकृतिक तत्त्व या एक महत्वपूर्ण ग्रह है, पर भारतवर्ष में सूर्य को भगवान के रूप में पूजा जाता है। भगवान इसलिए क्योंकि सूर्य ऊर्जा और प्राण का स्रोत है, जिसके बिना जीवन संभव ही नहीं। सूर्य का प्रकाश जीवन का प्रतीक है और चन्द्रमा भी सूर्य के प्रकाश से आलोकित है। सूर्य अनुशासन, प्रामाणिकता, गतिमान संतुलन और सातत्य का महान आदर्श है। इसलिए हिन्दू उपासना पद्धति में सूर्य की आराधना का विशेष महत्त्व है, ‘मकर संक्रांति’ इसी आराधना का महत्वपूर्ण उत्सव है।
यूं तो भारतीय काल गणना के अनुसार वर्ष में बारह संक्रांतियां होती हैं, जिसमें ‘मकर संक्रांति’ का महत्व अधिक माना गया है। इस दिन से सूर्य मकर राशि में प्रवेश करने लगता है, इसलिए इसे मकर संक्रांति कहते हैं। इसी दिन से सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में गति करने लगता है, अतः इसे सौरमास भी कहते हैं। इसी दिन से सौर नववर्ष की शुरुआत होती है। इस अवसर पर लोग पवित्र नदियों एवं तीर्थस्थलों पर स्नान कर भगवान सूर्य की आराधना करते हैं। सूर्य आराधना का यह पर्व भारत के सभी राज्यों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। भारत के विभिन्न प्रांतों में इस त्यौहार को मनाए जाने के ढंग में भी भिन्नता है, लेकिन उत्सव का मूल हेतु सूर्य की आराधना करना ही है। मकर सक्रांति को पतंग उत्सव, तिल संक्रांति, पोंगल आदि नामों से भी जाना जाता है। इस दिन तिल-गुड़ खाने-खिलाने, सूर्य को अर्ध्य देने और पतंग उड़ाने का रिवाज है। इस दिन से दिन धीरे-धीरे बड़ा होने लगता है।
धार्मिक मान्यता : मकर संक्रांति से अनेक पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। मान्यता है कि इस दिन भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाया करते हैं। शनिदेव चूंकि मकर राशि के स्वामी हैं, अतः इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भागीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर आगे बढ़ी थी। यह भी कहा जाता है कि गंगा को धरती पर लानेवाले महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए इस दिन तर्पण किया था। उनका तर्पण स्वीकार करने के बाद इस दिन गंगा समुद्र में जाकर मिल गई थी। इसलिए मकर संक्रांति पर गंगा सागर में मेला लगता है।
महाभारत काल में वयोवृद्ध योद्धा पितामह भीष्म ने भी अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही चयन किया था। कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने इसी दिन असुरों का अंत कर युद्ध समाप्ति की घोषणा की थी। इस प्रकार यह दिन बुराइयों को समाप्त करने का दिन भी माना जाता है। ऐसी भी मान्यता है कि माता यशोदा ने जब पुत्र प्राप्ति के लिए व्रत किया था तब सूर्य उत्तरायण काल में पदार्पण कर रहे थे और उस दिन मकर संक्रांति थी। कहा जाता है तभी से मकर संक्रांति व्रत का प्रचलन हुआ।
खिचड़ी पर्व : उत्तर प्रदेश में मकर संक्रांति को खिचड़ी पर्व भी कहा जाता है। खिचड़ी बनने की परंपरा को शुरू करनेवाले बाबा गोरखनाथ थे। कहा जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय नाथ योगियों को खिलजी से संघर्ष के कारण भोजन बनाने का समय नहीं मिल पाता था। इससे योगी अक्सर भूखे रह जाते थे। इस समस्या का समाधान स्वरूप बाबा गोरखनाथ ने दाल, चावल और सब्जी को एक साथ पकाने की सलाह दी। बाबा गोरखनाथ ने इस व्यंजन का नाम खिचड़ी रखा। इस तरह झटपट बननेवाली खिचड़ी से नाथयोगियों की भोजन की समस्या का समाधान हो गया और खिलजी के आतंक को दूर करने में वे सफल रहे। खिलजी पर विजय प्राप्त करने के कारण गोरखपुर में मकर संक्रांति को विजय दर्शन पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि गोरखपुर के बाबा गोरखनाथ के मंदिर के पास मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी मेला आरंभ होता है। कई दिनों तक चलनेवाले इस मेले में बाबा गोरखनाथ को खिचड़ी का भोग चढ़ाया जाता है और इसे प्रसाद रूप में वितरित किया जाता है।
पतंगबाजी का आनंद : प्राचीनकाल से ही मनुष्य की इच्छा रही है कि वह मुक्त आकाश में उड़े। संभवतः इसी इच्छा ने पतंग की उत्पत्ति हुई होगी। गुजरात और महाराष्ट्र में मकर संकांति के दिन पतंग उड़ाने की परम्परा है। इस दिन चारों ओर वो काट, कट गई, पकड़ो-पकड़ो, का शोर मचता है। गुजरात का अहमदाबाद भारत सहित पूरे विश्व में पतंगबाजी के लिए प्रसिद्ध है। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर यहां अंतरराष्ट्रीय पतंग महोत्सव का आयोजन होता है।
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हिन्दू धर्मग्रन्थ : अपने धर्मग्रंथों को जानें
कठोपनिषद्
कृष्ण यजुर्वेद शाखा का यह उपनिषद् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस उपनिषद् के रचयिता कठ नामक तपस्वी आचार्य थे। वे मुनि वैशम्पायन के शिष्य तथा यजुर्वेद की कठशाखा के प्रवर्तक थे। इस उपनिषद् में दो अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन वल्लियां हैं, जिनमें वाजश्रवा-पुत्र नचिकेता और यम के बीच संवाद है।
कठोपनिषद के अनुसार, वाजश्रवा ऋषि के पुत्र थे- नचिकेता। वाजश्रवा ऋषि ने एक बार विश्वजीत नामक यज्ञ किया। यज्ञ की समाप्ति पर वाजश्रवा ने अपना गोधन आदि को ब्राम्हणों को दक्षिणा के रूप में दान कर रहे थे। नचिकेता ने देखा कि उनके पिता स्वस्थ गायों के बजाए कमजोर, बीमार गाएं दान कर रहें हैं। नचिकेता समझ गया कि मोह के कारण ही पिता ऐसा कर रहे हैं। पिता के मोह को दूर करने के लिए नचिकेता ने पिता से प्रश्न किया कि वे अपने पुत्र को किसे दान करेंगे? वाजश्रवा ने इस प्रश्न को टाला, लेकिन नचिकेता ने फिर यही प्रश्न पूछा। बार-बार यही पूछे जाने पर ऋषि क्रोधित हो गए और उन्होंने कह दिया कि जा, मैं तुझे मृत्यु (यमराज) को दान करता हूं।
नचिकेता अल्पायु में ही अत्यंत मेधावी था। नचिकेता यमराज को खोजते हुए यमलोक पहुंच गया। यम के दरवाजे पर पहुंचने पर नचिकेता को पता चला कि यमराज वहां नहीं है, फिर भी उसने हार नहीं मानी और तीन दिन तक वहीं बैठकर भूखे-प्यासे यमराज की प्रतीक्षा करता रहा। यमराज के दूतों ने देखा कि नचिकेता का जीवनकाल अभी पूरा नहीं हुआ है। इसलिए उसकी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
तीन दिन की प्रतीक्षा के उपरांत चौथे दिन जब यमराज लौटे तो उन्होंने देखा कि द्वार पर एक तेजस्वी बालक बैठा है। यमराज ने फिर उसका परिचय पूछा। नचिकेता ने निर्भीक होकर विनम्रता से अपना परिचय दिया और यह भी बताया कि वह अपने पिता की आज्ञा से वहां आया है।
यमराज ने सोचा कि यह पितृभक्त बालक मेरे यहां अतिथि है। मैंने और मेरे दूतों ने घर आए इस अतिथि का सत्कार नहीं किया। उन्होंने नचिकेता से कहा, “हे ऋषिकुमार, तुम मेरे द्वार पर तीन दिनों तक भूखे-प्यासे बैठे रहे, अतः मुझसे तीन वर मांग लो।”
1. नचिकेता ने प्रथम वर में अपने पिता के क्रोध का परिहार तथा वापस लौटने पर उनका वात्सल्यमय व्यवहार मांगा।
2. दूसरे वर में अग्नि के स्वरूप को जानने की इच्छा प्रकट की। नचिकेता को यमराज से ‘अग्निविद्या’ प्राप्त हुई। नचिकेता की जिज्ञासा और ज्ञान से प्रसन्न होकर यमराज ने उसे एक और वर प्रदान किया। उन्होंने कहा- “हे नचिकेता! मेरे द्वारा कही गई यह ‘अग्निविद्या’ आज से तुम्हारे नाम से जानी जाएगी।” इसके परिणामस्वरूप अग्निविद्या का नाम “नचिकेताग्नि” पड़ा।
3. नचिकेता ने तीसरे वर में मनुष्य के जन्म-मरण तथा ब्रह्मा को जानने की इच्छा प्रकट की। यमराज इसका उत्तर नहीं देना चाहते थे। उन्होंने नचिकेता को अनेक प्रलोभन दिए, फिर भी उसने मृत्यु के रहस्य को जानने का आग्रह नहीं छोड़ा। अंत में यमराज को नचिकेता के आग्रह को मानना पड़ा और उन्होंने उसे ब्रह्मा के स्वरूप, जन्म-मरण, विद्या-अविद्या आदि का ज्ञान प्रदान किया।
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समाज हित जीवन अर्पित
हम भी चाहें ऐसा वर!
प्रत्येक मनुष्य सुख और आनंद की चाह रखता है। यह अच्छी बात है, वास्तव में आनंदमय रहना मनुष्य का स्वाभाविक लक्षण है। यही कारण है कि मनुष्य जीवनभर अनथक प्रयत्न करके उन सारी वस्तुओं को प्राप्त करना चाहता है, जिससे उसे सुख मिल सकता है। गाड़ी, बंगला, नौकर-चाकर, ऐश्वर्य, नाम, यश, कीर्ति आदि की उपलब्धि के लिए वह जी तोड़ मेहनत करता है, क्योंकि उसे लगता है कि सुख और आनंद इन्हीं भौतिक वस्तुओं से ही प्राप्त हो सकता है। इसलिए भौतिक समृद्धि को जीवन का लक्ष्य मानकर देश और दुनिया में एक घोर प्रतिस्पर्धा देखी जा सकती है। हमारी शिक्षा, न्याय, विधि, विज्ञान, यहां तक धार्मिक क्षेत्र भी आज भौतिक समृद्धि की राह पर चल पड़ा है। इस भेड़ चाल ने समाज को स्वार्थी बना दिया है।
समाज का एक दूसरा वर्ग ऐसा भी है जो दूसरों को दुःख देकर, दूसरों का शोषण कर अपना स्वार्थ साधते हैं। यही कारण है कि भ्रष्टाचार, दुराचार और अनैतिकता की अनेक अप्रिय घटना हमारे समाज में दिखाई देती है। आज प्रतिदिन दुराचार की खबर कहीं न कहीं से आती है। नारी अस्मिता की रक्षा को लेकर सारा समाज चिंतित है। अतः चारित्रिक पतन की चुनौती के काल में वास्तविक सुख और आनंद के महान स्रोत की खोज की जानी चाहिए।
शाश्वत की खोज : अपने ओजस्वी वाणी से भारत की महिमा को विश्वपटल पर आलोकित करनेवाले स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12, जनवरी 1863 को हुआ। बाल्यावस्था में कभी वे साधुओं के संग बैठकर उनका भजन सुनते तो कभी अपने मित्रों के साथ राजा-प्रजा का खेल खेलते, कभी किसी गरीब को वस्त्र, भोजनादि देकर आनंद की अनुभूति करते तो कभी ध्यानमग्न होकर शिव की आराधना करते। बजरंगबलि हनुमान के प्रति उनका मन इतना रमा रहता कि उन्हीं की तरह बलोपासना करने में गौरव का अनुभव करते। पर जैसे-जैसे वे बड़े होते गए शाश्वत की खोज में लग गए। क्या सचमुच ईश्वर है? क्या मैं उसे देख सकता हूं? बस, इसी खोज में ही वे मग्न रहते। और एक दिन ऐसा भी आया जब उन्होंने ईश्वर की अनुभूति कर ली।
स्वामी विवेकानन्द कहते थे, ‘बल ही जीवन है और दुर्बलता ही मृत्यु। विस्तार ही जीवन है और संकोच ही मृत्यु।’
स्वामीजी का यह कथन कई बार मैं अपनेआप से कहता हूं, और जब भी कहता हूं तो हृदय में एक विद्युत तरंग सी लहरें उठने लगती हैं। ऐसा लगता है कि कोई अद्भुत शक्ति अन्दर से बोल रही है। स्वामीजी के ये शब्द हमारे सहज स्वभाव को जाग्रत करते हैं- ‘बलवान बनो, निर्भय बनो, अपने मन का विस्तार करो। यही जीवन है। इसी में आनंद है।’
निर्भय बनो : स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका से भारत लौटे तो देशभर भ्रमण कर युवाओं को कहते- ‘निर्भय बनो। बलवान बनो। समस्त दायित्व अपने कन्धों पर ले लो और जान लो कि तुम ही अपने भाग्य के विधाता हो। जितनी शक्ति और सहायता चाहिए वह सब तुम्हारे भीतर है।’
क्या सचमुच सारी शक्ति हमारे भीतर है? यह सवाल भी कई बार मन में आया। पर उत्तर तो स्वामीजी ने ही दे दिया। वे कहते थे- ‘अनंत शक्ति, अदम्य साहस तुम्हारे भीतर है क्योंकि तुम अमृत के पुत्र हो। ईश्वर स्वरूप हो।’
मैं सोचता था, स्वामीजी इतनी बड़ी-बड़ी बातें इतनी सहजता से कैसे बोल लेते थे, और उनके शब्दों में क्या ऐसा जादू था कि संसार के लोग उनकी वाणी पर मंत्रमुग्ध हो जाते। इतना ही नहीं तो उनसे प्रेरित होकर हजारों क्रन्तिकारी देश की स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागी हो गए। कितनों ने अपने प्राणों की आहुति देश-धर्म की रक्षा के लिए दे दी। विश्वधर्म सम्मेलन में तो केवल एक पंक्ति – “मेरे अमेरिका निवासी बहनों तथा भाइयों।”, ने वहां उपस्थित लोगों को अपना बना लिया। विदेश के अनेक महानुभाव अपने अनुभव में लिखते हैं कि जब भी स्वामी विवेकानन्द “भारत” शब्द का उच्चारण करते, सुननेवालों के मन में भारत के प्रति आत्मीयता का भाव जाग्रत हो जाता।
स्वामीजी के हृदय में भारत के प्रति अगाध प्रेम और असीम श्रद्धा थी। “भारत” शब्द के उच्चार मात्र से विदेशियों के मन को भारतभक्ति से भर देने का अदभुत सामर्थ्य था उनके शब्दों में। यह सामर्थ्य हमारे भीतर भी आ सकता है। आवश्यकता है महान चरित्र, अगाध भक्ति, ज्ञान और विवेक की। परन्तु, ज्ञानार्जन के स्थान पर हम जानकारियों का ढेर इकठ्ठा करते हैं, चरित्र संवारने के बजाय अपना रूप संवारते हैं, भक्ति के बदले भगवान से सौदा करते हैं और विवेक के स्थान पर क्षणिक लाभ के पीछे भागते हैं।
ज्ञान, भक्ति, विवेक, वैराग्य : स्वामी विवेकानन्द के जीवन का एक प्रसंग है। उनके पिता विश्वनाथ दत्त के निधन के उपरांत उनके घर की स्थिति बहुत ही ख़राब हो गई। खाने के लिए भी अन्न नहीं था। इधर नरेन्द्र (संन्यास पूर्व स्वामीजी का नाम) को नौकरी भी नहीं मिल रही थी। तब माँ भुवनेश्वरी देवी ने नरेन्द्र से कहा, - “जा, अपने गुरु के पास और उनसे घर-परिवार के दुखों को दूर करने की प्रार्थना कर।”
नरेन्द्र तत्काल अपने गुरु ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस के पास गए। उनसे याचना करने लगे- मुझे अच्छी नौकरी मिलने का आशीर्वाद दो, मेरे परिवार के दुखों को दूर कर दो। तब ठाकुर रामकृष्ण परमहंस ने कहा, - “आज मंगलवार है। जा, मंदिर के भीतर। आज माँ तेरी सारी मनोकामना पूर्ण करेगी।”
जैसे ही नरेन्द्र ने दक्षिणेश्वर काली मंदिर के भीतर प्रवेश किया, उनको महाकाली का साक्षात्कार हुआ। तब नरेन्द्र ने देवी से प्रार्थना की, कि मुझे “ज्ञान दे, भक्ति दे, विवेक दे, वैराग्य दे।” ऐसा तीन बार हुआ। वह गया था नौकरी और घर की समृद्धि मांगने, पर मांग आया- ज्ञान, भक्ति, विवेक और वैराग्य।
यह प्रसंग नरेन्द्र के जीवन का टर्निंग पॉइंट था। यह हम सभी जानते हैं और बड़ी ख़ुशी से इस प्रसंग को हम अपने मित्रों को बताते भी हैं। पर अपने और समाज के परिप्रेक्ष्य में हम इस वरदान पर विचार नहीं करते। क्या ज्ञान, भक्ति, विवेक और वैराग्य केवल नरेन्द्र के लिए ही आवश्यक था? क्या हमारे देश के युवाओं के लिए इन गुणों की आवश्यकता नहीं है?
निश्चय ही हमारे समाज, देश व संसार को इस वरदान की आवश्यकता है। हम नौकरी, व्यवसाय, नाम, यश, कीर्ति और सफलता के लिए भगवान के सम्मुख प्रार्थना करते हैं, फुलमाला चढ़ाते हैं और श्रीफलादि भेंट करते हैं। पर समाज में व्याप्त संवेदनहीनता, भय, तिरस्कार, दुराचार और भ्रष्टाचार को मिटाने का सार्थक उपाय नहीं खोजते। उसे कानून, पुलिस और सरकार पर छोड़ देते हैं। समाज में आदर्शों की स्थापना कानून से नहीं वरन चरित्र के निर्माण से होता है। और चरित्रवान मनुष्य के लिए आवश्यक गुण है- ज्ञान, भक्ति, विवेक और वैराग्य।
आइए, स्वामीजी द्वारा माँ काली से मांगे गए वरदान को समाजजीवन में सम्प्रेषित करें, ताकि सारा भारत अपने आराध्य से कह सके- “ज्ञान दे! भक्ति दे! विवेक दे! वैराग्य दे!”
- लखेश्वर चंद्रवंशी ‘लखेश’
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धर्मबीज प्रश्नोतरी – जनवरी, 2019
धर्मबीज प्रश्नोत्तरी :
यह प्रश्नोत्तरी धर्मबीज के अक्टूबर माह के अंक पर आधारित है। सभी प्रश्नों के सही उत्तर देनेवाले पहले तीन प्रतिभागियों को 500 रुपये मूल्य की पुस्तकें तथा स्वामी विवेकानन्द की एक प्रतिमा/चित्र पुरस्कार के रूप में दी जाएगी तथा उनके नाम और चित्र धर्मबीज के अगले अंक में प्रकाशित की जाएगी। आप अपने नाम, पते और चित्र के साथ अपने उत्तर ईमेल द्वारा : This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it. को या धर्मबीज, विवेकानन्दपुरम्, कन्याकुमारी – 621702 को भेज सकते हैं।
1) स्वामी विवेकानन्द के अनुसार वेद क्या है?
2) स्वदेशी आन्दोलन के प्रथम बलिदानी - बाबू गेनू का बलिदान कब हुआ था?
3) भगिनी निवेदिता की समाधि कहां स्थित है और उसपर क्या लिखा है?
4) इन्द्र ने यक्ष के बारे में किससे प्रश्न किया?
5) केनोपनिषद् में कितने खंड है?
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अक्टूबर, 2018 अंक की प्रश्नोत्तरी के उत्तर
1) “The Gift Unopened : A new American Revolution” पुस्तक की लेखिका का नाम बताइए।
उत्तर : एलिनर स्टार्क।
2) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विवेकानन्द केन्द्र में गुरु के रूप में किसकी अर्चना की जाती है?
उत्तर : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में ‘भगवे ध्वज’ की और विवेकानन्द केन्द्र में ‘ॐ कार’ की गुरु के रूप में अर्चना की जाती है।
3) तैमूर लंग किस वीर योद्धा के भाले से मारा गाया?
उत्तर : तैमूर लंग हरबीर सिंह गुलिया वीर योद्धा के भाले से मारा गया।
4) ईशोपनिषद् में कुल कितने छंद हैं?
उत्तर : ईशोपनिषद् में कुल 18 छंद है।
5) 4 जुलाई को भगिनी निवेदिता ने स्वप्न में क्या देखा?
उत्तर : 4 जुलाई को भगिनी निविदेता ने स्वप्न में देखा कि श्रीरामकृष्ण दूसरी बार अपना शरीर त्याग रहे हैं।
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